भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के चाबुक का असर धीरे- धीरे ही सही पर मैदान में दिखाई देने लगा है। पिछले दिनों हुई  मंत्रिपरिषद की बैठक के तुरंत बाद विभागीय समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बदले तेवर ने न सिर्फ मंत्रियों को हैरान किया, बल्कि वे अब अपने चुनाव क्षेत्र के साथ ही प्रभार के जिलों में भी अपना ध्यान केन्दि्रत करने लगे हैं। जिलों में जाकर संगठन के पदाधिकारियों की पूछ परख और पार्टी कार्यकर्ताओं से मेल मुलाकात का दौर शुरू हो गया है। समीपवर्ती जिला सीहोर के प्रभारी मंत्री रामपाल सिंह और होशंगाबाद के प्रभारी मंत्री सूर्यप्रकाश मीणा की सक्रियता और बदली हुई कार्यप्रणाली को देखकर तो कम से कम ऐसा ही लगता है। जिन मंत्रियों के प्रभार का जिला प्रदेश के किसी आखिरी छोर पर है वहां भी उन्होंने अपना समय देना और वहां पार्टी कार्यकर्ता और जनता की समस्याओं  से रूबरू होना शुरू कर दिया है। अब तो इनके दौरे के पहले संगठन पदाधिकारियों, स्थानीय विधायकों को बकायदा सूचना मिलना भी शुरू हो गयी है। इसके पहले प्रभारी मंत्री कब आए और कब गए इसका पता तो स्थानीय जनप्रतिनिधियों को तब चलता था जब दूसरे दिन मीडिया में इसकी चर्चा होती थी। अब सरकारी कार्यक्रम के जरिए भी पार्टी कार्यकर्ताओं, स्थानीय नेताओं से जुड़ने का प्रयास शुरू हो गया है। शनिवार को ‘‘मिल-बांचें’’ कार्यक्रम के दौरान जब प्रदेश के मंत्री और बड़े अफसर जब निर्धारित स्कूलों में पहुंचे तो स्कूल प्रबंधन ने भी बाकायदा इसकी पूर्व सूचना स्थानीय जनप्रतिनिधियों और भाजपा कार्यकर्ताओं को दी।


कांग्रेस के गढ़ में घेराबंदी भी शुरू
अमित शाह की रणनीति के मुताबिक प्रदेश के कांग्रेस सांसदों के क्षेत्र में आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर तैयारियां शुरू हो गई हैं। इन क्षेत्रों में कांग्रेस के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया (गुना) कमलनाथ (छिंदवाड़ा) और कांतिलाल भूरिया (झाबुआ) को घेरने का काम अमित शाह ने स्वयं अपने पास रखा है। बताया जाता है, कि मध्यप्रदेश की इन तीनों सीटों पर शाह ने अपने कुछ विश्वसनीय व पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को तैनात कर दिया है, जो सबसे पहले यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस के इन सांसदों के भाजपा के किन-किन नेताओं से गहरे संबंध हैं और लोकसभा चुनाव के समय ये किस तरह से उनकी चोरी-छिपे मदद करते हैं। इसी तरह विधानसभा एवं अन्य चुनाव में इन सांसदों की मदद लेकर अपनी वैतरणी पार कराने वाले भाजपा नेताओं को  भी चिन्हित किया जा रहा है। साथ ही उन इलाकों की गहराई से खोजबीन की जा रही है, जहां से कांग्रेस सांसदों को थोकबंद वोट मिलते हैं। यह भी संकेत मिले हैं, कि तीनों बिन्दुओं को लेकर एक प्रारंभिक रिपोर्ट तैयार की जा रही है, जो सीधे भाजपा सुप्रीमो के कार्यालय को सौंपी जाएगी। इस पूरी मुहिम से  पार्टी के स्थानीय नेताओं और पदाधिकारियों को अलग रखा गया है। इसी बीच श्री शाह ने उत्तरप्रदेश के अपने विश्वसनीय मंत्री स्वतंत्र देव सिंह को प्रदेश के इन तीनों लोकसभा क्षेत्र का प्रभारी नियुक्त कर दिया है। श्री शाह के विश्वस्त पूर्णकालिक भाजपा कार्यकर्ता भी सीधे उन्हीं के सानिध्य और समन्वय में कार्य करेंगे। इसी तरह की घेराबंदी कांग्रेस के कब्जे वाले छत्तीसगढ़ के एकमात्र लोकसभा सदस्य ताम्रध्वज साहू को रोकने की रणनीति भी बनी है और इसका प्रभार श्री शाह ने मध्यप्रदेश के अपने विश्वासपात्र मंत्री नरोत्तम मिश्रा को सौंपा है।


रीडर कहां हैं राजस्व न्यायालयों में
राजस्व न्यायालयों में लंबित प्रकरणों में कमी लाने और किसानों की लंबित समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार ने नायब तहसीलदारों और तहसीलदारों की कमी को दूर करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं।  मंत्री परिषद की पिछली बैठक में इन पदों से सेवानिवृत्त हो चुके अधिकारियों  की सेवाएं संविदा के आधार पर लेने का निर्णय लिया है, जबकि प्रदेश के पढ़े-लिखे बेरोजगार युवा अब रोजगार की तलाश करते- करते निराश हो चुके हैं। ऐसे में सरकार की इस पहल का विरोध भी शुरू हो गया है। राजस्व विभाग के उच्च अधिकारी राजस्व न्यायालय में लंबित प्रकरणों के लिए सिर्फ निचले स्तर के अधिकारियों की कमी को दोषी मानते हैं। जबकि ऐसा नहीं है। प्रदेश के नायब तहसीलदार से लेकर कमिश्नर तक सभी 1404 राजस्व न्यायालय में रीडर के पद रिक्त हैं। लगभग 30 वर्षों से इनकी भर्ती भी नहीं हुई है। इन पदों पर चपरासी एवं दैनिक वेतन भोगी जैसे अप्रशिक्षित कर्मचारियों से काम चलाया जा रहा है। गिनती के कुछ न्यायालयों में ही तृतीय श्रेणी लिपिक से काम लिया जा रहा है जो राजस्व नियम, प्रक्रिया एवं कानून से परिचित भी नहीं होते ऐसे में भारी तादाद में राजस्व प्रकरण इन न्यायालयों में लंबित हैं। साथ ही अधकचरे निर्णय के बाद, अपील की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है।


विश्वविद्यालय में गौशाला!
जो माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता वि.वि. अपनी स्थापना के प्रारंभिक वर्षों में पत्रकारिता और जनसंचार की पढ़ाई के लिए देश में सबसे विश्वसनीय माना जाता था, उसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी अब शायद गौपालन की बारीकियां भी सीखेंगे। कहने- सुनने में ही बेमेल लगने वाले इस विषय संयोजन को लेकर अभी से विवाद होने लगा है। वि.वि. के कुछ छात्र-छात्राएं इसके विरोध में हैं तो कुछ इसके समर्थन में आ खड़े हुए हैं। दरअसल कुलपति ने बताया है, कि 50 एकड़ में प्रस्तावित विश्वविद्यालय के नए परिसर में 2 से 5 एकड़ में एक गौशाला बनाई जाएगी इस निर्णय को कुलपति के तीसरे कार्यकाल के लिए सरकार को साधने का प्रयास समझा जा रहा है। कांग्रेस ने तो इसे आरएसएस के प्रभाव में लिया गया निर्णय बताकर वि.वि. के भगवाकरण की एक और कोशिश करार दिया है। विरोध में खड़े छात्र इसे औचित्यहीन मान रहे हैं, जबकि वि.वि. प्रबंधन इसके पक्ष में  भारत के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों तक्षशिला और नालंदा का हवाला दे रहे हैं। ये बात और है, कि वर्तमान समय में देश के किसी भी विश्वविद्यालय में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वि.वि. प्रबंधन गौशाला के मल-मूत्र से बायोगैस पैदा करने और उससे बिजली बनाने की बात भी कर रहा है, जबकि यह काम सौर ऊर्जा से भी हो सकता है। वैसे भी बायो गैस को सौर ऊर्जा से काफी महंगा और असफल माना जाता है। गौशाला के साथ जैविक खेती करके सब्जियां और फल पैदा करने की बात भी वि.वि. प्रबंधन कर रहा है, जबकि प्रदेश की शासकीय प्राथमिक और माध्यमिक शालाओं में बागवानी और खेती की प्रारंभिक प्रायोगिक  शिक्षा लगभग विलुप्त हो चुकी है।


कोयला खपत पर लगाम नहीं
सरकार को यह बात बहुत पहले से ही पता है, कि कोयले का भंडार सीमित है और इसकी अंधाधुंध खपत पर रोक लगना चाहिए।  इसीलिए वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। इसके उलट मध्यप्रदेश में जरूरत से ज्यादा कोयला जलाकर ताप विद्युत गृहों से बिजली उत्पान दिया जा रहा है। प्रदेश के सिंगाजी, संजय गांधी, सतपुड़ा और अमरकंटक ताप विद्युत गृहों में बिजली बनाने के लिए निर्धारित से डेढ़ गुना ज्यादा कोयले की खपत हो रही है। इससे प्राकृतिक भण्डारों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है और महंगी बिजली पैदा हो रही है। एक जानकारी के अनुसार इन ताप विद्युत गृहों में ं1 यूनिट बिजली बनने में 450 ग्राम कोयले की खपत होना चाहिए, किन्तु वर्तमान में 650 ग्राम कोयले की खपत हो रही है। इससे स्पष्ट पता चलता है, कि 1 यूनिट बिजली बनाने में लगभग 4 रुपए ज्यादा खर्च हो रहे हैं और एक प्राकृतिक संसाधन की बरबादी अलग हो रही है।

Source : खिलावन चंद्राकर